क्षमावाणी महापर्व : मुक्ति का मार्ग है क्षमा

थर्ड आई न्यूज़
सौरभ जैन की कलम से
पर्वाधिराज पर्युषण पर्व के समापन पर सम्पूर्ण जैन समाज क्षमावाणी महापर्व मनाता है। यह पर्व अपनी सादगी में अत्यंत गहन है, जो हमें याद दिलाता है कि सच्ची शक्ति क्रोध या प्रतिशोध में नहीं, बल्कि विनम्रता और क्षमा में निहित है।
क्षमाभाव का स्वरूप
जैन दर्शन में क्षमा दुर्बलता नहीं, बल्कि वीरता का आभूषण मानी जाती है। प्राचीन उक्ति “क्षमा वीरस्य भूषणम्” इस सत्य को अभिव्यक्त करती है।
इस दिन जैन एक-दूसरे से हाथ जोड़कर निवेदन करते हैं:
“मिच्छामि दुक्कडम्” या “भूल चूक माफ – उत्तम क्षमा”,
अर्थात् “मेरे द्वारा हुई भूलों को क्षमा करें।”
यह मात्र औपचारिकता नहीं, बल्कि ज्ञात-अज्ञात, मन-वचन-काया से हुए अपराधों के लिए सच्चे पश्चाताप का भाव है। यही भाव आत्मा को पवित्र करता है, कर्मबंधन को घटाता है और अहिंसा तथा अपरिग्रह की भावना से जोड़ता है।
परंपरा और साधना
दिगंबर जैन परंपरा में पर्युषण का पालन अत्यंत तपश्चर्या से होता है। आचार्य और संत गहन साधना एवं उपवास करते हैं, वहीं गृहस्थ आत्मचिंतन, स्वाध्याय और संयम का पालन करते हैं।
दशलक्षण पर्व की पूर्णाहुति पर क्षमावाणी आती है, जो एक आध्यात्मिक चरम बिंदु है — जहाँ अहंकार, वैर और द्वेष मिटकर विनम्रता और करुणा में बदल जाते हैं।
क्षमाभाव केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं है। जैन धर्म सभी प्राणियों के प्रति क्षमा का विस्तार करता है। यही भाव प्राचीन प्रार्थना में अभिव्यक्त है:
“खमेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केणवि॥”
(मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें।
सभी जीव मेरे मित्र हैं, किसी से मेरा वैर नहीं।)
इस प्रकार, क्षमावाणी केवल व्यक्ति-व्यक्ति के बीच नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि के लिए शांति का संदेश है।
आधुनिक समय में क्षमावाणी का महत्व
आज के तनावपूर्ण और विवादों से भरे जीवन में क्षमावाणी का संदेश और भी प्रासंगिक है।
जहाँ द्वेष परिवारों को तोड़ता है, वहाँ क्षमा उन्हें जोड़ती है।
जहाँ क्रोध समाज को बाँटता है, वहाँ क्षमा एकता लाती है।
जहाँ अहंकार अशांति फैलाता है, वहाँ क्षमा शांति का मार्ग दिखाती है।
जैन दृष्टिकोण हमें सिखाता है कि क्षमा दुर्बलता नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साहस है।
दैनिक जीवन में क्षमा का अभ्यास
गृहस्थ जीवन में क्षमा की शुरुआत घर से होती है — छोटी-छोटी बातों को छोड़ना, सच्चे मन से क्षमा माँगना और धैर्य का अभ्यास करना। सामाजिक स्तर पर क्षमाभाव अपनाने से आपसी तनाव कम होते हैं, कार्यस्थल पर सहयोग बढ़ता है और मेल-मिलाप की संस्कृति पनपती है।
आचार्य कुंदकुंद ने समयसार में कहा है कि आत्मा का स्वरूप शुद्ध है, क्रोध और द्वेष से रहित। क्षमा उस शुद्धता को पुनः पहचानने का साधन है।
अन्य धर्मों में क्षमा का स्थान
जैन धर्म ही नहीं, अन्य सभी धर्म भी क्षमा को महत्व देते हैं:
हिंदू धर्म: भगवद गीता में क्षमा को दिव्य गुण माना गया है, जो आत्मा को बंधन से मुक्त करता है।
बौद्ध धर्म: क्षमा बिना शर्त मानी जाती है, चाहे अपराधी पश्चाताप करे या न करे।
इस्लाम: अल्लाह अल-ग़फूर (अत्यंत क्षमाशील) कहलाते हैं। शब-ए-बरात पर सामूहिक प्रार्थना कर क्षमा माँगी जाती है।
यहूदी धर्म: योम किप्पुर (प्रायश्चित दिवस) पूरी तरह से क्षमा और मेल-मिलाप को समर्पित है।
ईसाई धर्म: फॉरगिवनेस संडे (क्षमा रविवार) पर लोग एक-दूसरे से क्षमा माँगते हैं।
आधुनिक परंपराएँ: ग्लोबल फॉरगिवनेस डे (7 जुलाई) और इटली का सेलेस्टिनियन फॉरगिवनेस उत्सव, जिसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर माना है।
मान्यता की आवश्यकता
इतनी प्राचीन परंपरा होने के बावजूद, जैन समाज का क्षमावाणी पर्व आज भी विश्व स्तर पर उतना परिचित नहीं है। इसके मूल मूल्य — विनम्रता, मेल-मिलाप और शांति — सर्वमान्य और सार्वभौमिक हैं। जिस प्रकार यूनेस्को ने अन्य परंपराओं को मान्यता दी है, उसी प्रकार जैन धर्म का यह क्षमा पर्व भी वैश्विक पहचान का अधिकारी है ।
क्षमावाणी महापर्व मात्र एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन जीने की शैली है। यह हमें सिखाता है कि कटुता छोड़कर क्षमा माँगें और दूसरों को भी क्षमा दें।
जब हम कहते हैं “मिच्छामि दुक्कडम्”, तो यह शब्द केवल औपचारिकता न रह जाएँ, बल्कि हमारे जीवन का हिस्सा बनें। क्योंकि क्षमा करने से हम अपने कर्मों का बोझ हल्का करते हैं, क्षमा माँगने से विनम्रता का विकास होता है और क्षमा का अभ्यास हमें मुक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ाता है।