बिहार नतीजों का तेजस्वी फैक्टर : तेजस्वी का प्रण नहीं फूंक सका प्राण, महागठबंधन का ऐसा हश्र क्यों? छह बड़े कारण

थर्ड आई न्यूज

पटना I बिहार की विधानसभा चुनाव में जनता ने एक मजबूत संदेश दिया है। जदयू-भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए महागठबंधन को बड़े अंतर से मात देती दिख रही है। शुरुआती दौर में ही एनडीए ने आकड़ों में स्पष्ट बढ़त बना ली। इससे 20 साल बाद सत्ता में वापसी की विपक्षी गठबंधन की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। अब तक के रुझानों में एनडीए 200 से अधिक सीटों पर बढ़त बनाए हुए है। वहीं, राजद की अगुवाई में महागठबंधन के प्रत्याशी केवल 38 सीटों पर ही आगे हैं। अन्य उम्मीदवार तीन सीटों पर आगे हैं। बिहार चुनाव नतीजों के रुझानों में सबसे अधिक चौंकाया है जनसुराज ने। प्रशांत किशोर की पार्टी के उम्मीदवार किसी भी सीट पर बढ़त नहीं बना सके हैं

बिहार विधानसभा चुनावों में महागठबंधन के पिछड़ने के छह बड़े कारण क्या हैं, आइए जानें – 1. हवा-हवाई चुनावी वादे :
तेजस्वी ने हर घर सरकारी नौकरी, पेंशन, महिला सशक्तिकरण जैसे बड़े वादे किए, लेकिन फंडिंग और टाइमलाइन का ठोस प्लान जनता से साझा नहीं किया। ऐसे में ये दावे लोगों को हकीकत से अधिक हवा-हवाई लगने लगे। महागठबंधन के नेता बार-बार कहते रहे कि ब्लूप्रिंट आएगा, लेकिन चुनाव खत्म होने तक नहीं आ पाया। इससे राजद और महागठबंधन के नेताओं की विश्वसनीयता जनता की नजर में कम हुई। दूसरी ओर, एनडीए ने महागठबंधन के दावों को हवा-हवाई बताकर चुनावों के दौरान खूब भुनाया। नतीजा ये रहा कि वे अपने वोटरों को लामबंद करने में सफल रहे।

2.सीट बंटवारे में देरी और भरोसे की कमी :
पूरे चुनाव में महागठबंधन खेमे में राजद ही राजद दिखा। राजद ने चुनाव प्रचार को स्वयंभू अंदाज में आगे बढ़ाया। राजद, कांग्रेस और वाम दलों के बीच अंदरखाने भरोसे की कमी दिखी। राजद का कांग्रेस और वाम दलों के साथ हुआ सीट शेयरिंग विवाद महागठबंधन को भारी पड़ गया। सीट बंटवारे का एलान महागठबंधन की ओर से काफी देर से किया गया। इससे एकजुट होकर जमीन पर उन्हें चुनावी तैयारी करने का गठबंधन के दलों को पूरा समय नहीं मिला। इस विवाद ने गठबंधन को जमीन पर कमजोर किया। तेजस्वी यादव उस भरोसे को हसिल करने में असफल रहे, जो वोटरों को अपने पक्ष में कर सकता था। घोषणापत्र का नाम ‘तेजस्वी प्रण’ रखना भी गलत फैसला साबित हुआ और प्रचार में सहयोगियों को तरजीह न देना महागठबंधन को भारी पड़ा। चुनावी नजीतों ने साबित किया कि तेजस्वी प्रण महागठबंधन में प्राण नहीं फूंक सका।

3.‘जंगलराज और मुस्लिमपरस्त’ छवि का नुकसान :
महागठबंधन मुस्लिम बहुल सीटों पर तो मजबूत रहा, लेकिन पूरे प्रदेश में यह छवि नुकसानदेह साबित हुई। बीजेपी ने इसे भुनाया और यादव वोट भी कई जगहों पर आरजेडी से खिसक गए। वक्फ बिल पर तेजस्वी के बयान ने भी विवाद बढ़ाया। दूसरी ओर एनडीए ने पूरे चुनाव के दौरान लालूराज की याद दिलाकर जंगलराज को निशाना बनाया। आरजेडी उम्मीदवारों के मंच से दबंगई के अंदाज में ‘कट्टे वाला’ चुनाव प्रचार भी लोगों को पसंद नहीं आया। चुनाव प्रचार के आखिरी दिन राजद उम्मीदवारों के मंच से तेजस्वी राज आने पर कट्टा लहराने के दावे किए गए। इससे जनता को जंगलराज का दौर फिर याद आ गया। नतीजा जो वोट पक्ष में पड़ते वह भी एनडीए के पक्ष में चला गया।

4.जातीय समीकरण को बहुत अधिक तरजीह :
राष्ट्रीय जनता दल ने 144 सीटों में से 52 यादव उम्मीदवार उतारे, यानी करीब 36%। यह तेजस्वी की ‘यादव एकीकरण’ रणनीति थी, लेकिन इससे जातिवादी छवि और मजबूत हो गई। सहयागी पार्टी भी शुरुआती दौर में इस फैसले से असहमत दिखे। गैर-यादव वोट बैंक-अगड़े और अति पिछड़े- महागठबंधन से दूर हो गए। बीजेपी ने इसे ‘यादव राज’ का नैरेटिव बनाकर शहरी और मध्यम वर्ग के बीच इसे खूब भुनाया।

5.एनडीए का एकजुट चेहरा, मोदी फैक्टर और नीतीश पर भरोसा :
एनडीए ने सीट शेयरिंग और प्रचार में एकजुटता दिखाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों ने एनडीए को मजबूत नैरेटिव दिया। महागठबंधन की अंदरूनी खींचतान के मुकाबले एनडीए का चुनावी प्रबंधन बहुत हद तक प्रभावी रहा और पूरे बिहार में वोटरों ने मोदी-नीतीश की जोड़ी पर भरोसा जताया। चुनावी समर के बीच में भाजपा के बड़े नेताओं ने भी अपरोक्ष रूप से साफ कर दिया कि सीएम नीतीश ही होगे। इस एकजुटता से एनडीए पर भाजपा का भरोसा बढ़ा।

6.चुनावी पोस्टरों में लालू यादव की छोटी तस्वीर :
तेजस्वी ने लालू की विरासत को अपनाया, लेकिन चुनावी पोस्टर्स में उनकी तस्वीर छोटी कर ‘नई पीढ़ी’ का संदेश देने की कोशिश की। इससे राजद के पुराने कार्यकर्ताओं में चुनाव प्रचार के दौरान असंतोष दिखा। राजद की यह दोहरी नीति उलटी पड़ गई। एनडीए ने इसे ‘जंगलराज के पाप छिपाने’ का मुद्दा बना दिया। एक बड़ी आबादी इससे सहमत भी हुई और अपना वोट महागठबंधन को न देकर एनडीए को दे दिया।

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