‘बंटेंगे तो कटेंगे, एक हैं तो सेफ हैं’: महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश में कामयाब, लेकिन क्या झारखंड में रहा विफल?

थर्ड आई न्यूज

मुंबई I महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनावों के साथ ही आज 13 राज्यों की 46 विधानसभा चुनावों के परिणाम आए। इन परिणामों में देश का चुनावी नक्शा पहले की भांति बरकरार रहा, लेकिन महाराष्ट्र में भाजपानीत महायुति गठबंधन की प्रचंड जीत ने विपक्ष के हौंसले को पस्त कर दिया। वहीं, उपचुनावों में जिस राज्य की सबसे ज्यादा चर्चा थी उस उत्तर प्रदेश में भी भाजपा गठबंधन ने तगड़ी बढ़त हासिल की। इस चुनाव से पहले प्रचार के दौरान पक्ष-विपक्ष द्वारा दिए गए कई नारों ने लोगों का खूब ध्यान खींचा, लेकिन लोगों के दिलो-दिमाग और जुबान पर केवल मोदी-योगी का नारा (बंटेंगे को कटेंगे और एक हैं तो सेफ हैं ) ही चढ़ सका। हालांकि भाजपा के सहयोगी दलों के नेताओं ने नारों को लेकर आपत्ति भी जताई। महाराष्ट्र औऱ उपचुनाव के नतीजों से साफ है कि योगी-मोदी के नारों का मतदाताओं पर खासा असर पड़ा, लेकिन वहीं झारखंड के मतदाता इन नारों से प्रभावित न हो सके।

ऐसे में हम आपको बताएंगे कि महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश उपचुनाव में इस नारे ने किस तरह से मतदाताओं को लामबंद किया और झारखंड में इसके फेल होने के क्या कारण रहे….

नारे को सकारात्मक रूप से जनता तक ले गए :
ताजा चुनावी परिणामों से साफ है कि भाजपा का धार्मिक एकजुटता, मोदी योगी की आक्रामक छवि और इन दोनों नेताओं की लोगों से जातियों में न बंटने की अपील काम आई। चुनावी विश्लेषकों का कहना है कि सहयोगियों के विरोध के बावजूद भाजपा इन दोनों नारों को सकारात्मक रूप से लोगों तक ले गई।

लोकसभा से छिटके ओबीसी और दलित आए साथ :
इन परिणामों ने यह दिखाया कि वोटरों ने बंटेंगे तो कटेंगे नारे पर अपनी मुहर लगाई। लोकसभा चुनावों के उलट इन चुनावों में भाजपा से छिटका ओबीसी और दलित वर्ग भी उसके साथ आया है। यूपी में दलितों ने सपा को उस तरह से वोट नहीं किया जैसे उसने लोकसभा के चुनावों में वोट किया था। कांग्रेस की इन चुनावों से दूरी भी सपा के लिए नुकसानदेह और भाजपा के लिए फायदेमंद रहीं।

वोटरों का ध्रुवीकरण :
चुनावी विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा इस नारे के बहाने मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने में सफल रही। हालिया लोकसभा चुनावों से इतर ये विधानसभा चुनाव और उपचुनाव धार्मिक रंग में रंगे रहे। मतदाताओं के बीच धार्मिक एकजुटता देखने को मिली। योगी आदित्यनाथ ने तकरीबन सभी चुनावी रैलियों में चाहें वह उत्तर प्रदेश में हो या महाराष्ट्र या झारखंड में विपक्षी दलों के पुराने कार्यकाल की याद दिलाकर धार्मिक एकजुटता की अपील की। जिसे बाद में प्रधानमंत्री मोदी ने भी एक हैं तो सेफ हैं कहकर अपना समर्थन दिया।

अपनी विचारधारा को दिया नया कलेवर :
बंटेंगे तो कटेंगे विचारधारा के स्तर पर भाजपा की कोई नई लाइन नहीं है। भाजपा सदैव ही हिंदुओं के एकजुट रहने की बात कहती आई है लेकिन इन चुनावों में इस नारे ने एक अलग तरह का असर किया। चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि लोगों ने जाति के ऊपर धर्म को चुना।

यूपी में अखिलेश के पीडीए का तोड़ :
उत्तर प्रदेश में 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजों ने बड़ा बदलाव हुए, जिसमें भाजपा की सीटों की संख्या 2019 में 62 से घटकर 33 हो गई। कांग्रेस सहित सपा गठबंधन ने अनुसूचित जातियों, यादवों सहित अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और मुसलमानों से समर्थन हासिल किया, जबकि एनडीए ने उच्च जातियों और कुछ ओबीसी के अपने सामाजिक आधार को बरकरार रखा। सपा की वापसी का एक प्रमुख कारण अनुसूचित जातियों, यादवों और मुसलमानों का इंडिया के पीछे एकजुट होना था। इस बार सीएम योगी आदित्यनाथ ने और नरेंद्र मोदी ने सभी जातियों के लोगों को एक साथ आने को प्रमुखता से उठाया। महाराष्ट्र में यह नारा गहराई से असर करता दिखा। सीएम ने अपनी हर रैली में लोगों से जाति के आधार पर वोट न करने की अपील की। सीएम की इस अपील की लाइन पर भाजपा के दूसरे नेताओं ने भी अपना प्रचार किया।

झारखंड में इस वजह से हुआ फेल :
माना यह भी जा रहा है कि जिस तरीके से भाजपा ने ‘बंटोगे तो कटोगे’ जैसा नारा झारखंड में दिया था उसका उल्टा असर हुआ है। मुस्लिम मतदाता पूरी तरह झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस के साथ खड़े हो गए, जबकि हिंदू मतदाताओं में विभाजन हुआ और इसका भाजपा को नुकसान हुआ जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा को इसका लाभ होगा।
स्थानीयता की नीति को लेकर भाजपा को दी पटखनी
झारखंड में जनता ने स्थानीय नेतृत्व पर भरोसा जताया। यहां एक तरफ हेमंत सोरेन झारखंड के आदिवासी लोगों को साधने की कोशिश में जुटे रहे, वहीं भाजपा हिमंत विश्व शर्मा और शिवराज सिंह चौहान जैसे कद्दावर लेकिन बाहरी नेताओं के भरोसे जमीन पर उतरी। स्थानीयता की नीति पर भाजपा के रुख से लोगों में नाराजगी रही। पूर्व में रघुवर दास सरकार के दौरान जिस तरह से स्थानीयता की नीति में बदलाव किया गया था, उससे वहां के आम वोटरों खासकर आदिवासी समाज ने सही नहीं माना था। यही कारण था कि पहले 2019 के विधानसभा चुनावों में और अब 2024 के विधानसभा चुनावों में भी वोटरों ने झामुमो और हेमंत सोरेन पर विश्वास जताया।

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